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जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
MOcroscomchoROcrocRcIRRORockce प्रथम अध्याय
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पूर्व पीठिका
१.१ भारतीय परम्परा में नारी का स्थानः
___ नारी और नर दोनों का योग समग्रता या परिपूर्णता की रचना करता है। महाभारत में वर्णित है "अर्ध" भार्या मनुष्यस्य, भार्या श्रेष्ठतमः सखा" अर्थात् भार्या पुरूष का आधा अंग है, भार्या सबसे श्रेष्ठ मित्र है। व्यापक अर्थ में 'नर' शब्द प्राणी जगत् के पुरूष वर्ग का द्योतक है तथा 'नारी' शब्द स्त्री वर्ग का द्योतक हैं। नर और नारी दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। संसार रथ के दो समान
नारी स्नेह, सौन्दर्य, कमनीयता, और सुकुमारता की प्रतीक है। नारी के सहज गुणों के उद्घाटन के साथ आगमकार कहते हैं "सुसीला चारू पेहिणी" अर्थात् वह “सुशीला" और " चारू प्रेक्षिणी" सुंदर दष्टि वाली होती है। आत्मदष्टा ऋषियों की भाषा में नारी सुदिव्य कुल की गाथा है। सुवासित शीतल मधुर जल और विकसित पद्मिनी के समान है।
___ मध्य युग में स्त्री निंदा और अवमानना के प्रसंगों में नारी शब्द का प्रयोग होता रहा है। कवियों ने कहा-नारी नरक की खान है। हिन्दी साहित्य के भक्ति युग की निर्गुण, सगुण धारा में न्यूनाधिक रूप में यही स्थिति बनी रही। तुलसीदास जी ने तो यहाँ तक कह दिया – "ढोल, गवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी" अर्थात् मोक्ष सिद्धि में नारी बाधक कही गई है।
___ स्त्री जाति के नारी के अतिरिक्त मैना, ग्ना, योषा, सुंदरी, ललना, मानिनी, कामिनी, भामिनी, रमणी, मानवी, भार्या, महिला आदि अनेक पर्यायवाची शब्द हैं। नारी के इतने पर्यायवाची शब्द उसकी अनेक विशिष्टताओं के परिचायक हैं। पुरूषों की अपेक्षा अधिक मानवीय गुणों से सुसज्जित नारी नरक की नहीं, सद्गुणों की खान है। इसलिए वह पुरूषों के लिए वन्दनीय और पूज्यनीय मानी गई है। "मानयन्ति एनाः पुरुषाः"- ऋग्वेद में नारी को सम्माननीय मानते हुए उसके गौरव को स्थापित किया गया है। वह गौरव के साथ कहती है:- मैं अपने परिवार की केतु (ध्वजा) हूँ, मस्तक हूँ। "अहं केतुरहं मूर्धाग्ना गच्छन्ति एनाः" अर्थात् नारी गन्तव्य है, नर पथिकवत् चलकर अपनी प्राप्या नारी के पास पहुँचता है, अतः उसे "ग्ना" कहा गया है। पुनश्च निरूक्त में संयोगावस्था में नारी को "योषा" कहा है, किन्तु जैन आगम उपासकदशांग में "भारिया धमम सहाइया" कहकर सामाजिक दायित्वों के साथ धर्म कार्यों में पुरूष की सहयोगिनी बनी नारी का ही योषा "रूप" सार्थक कहा है। इस प्रकार वह धर्म समाज परिवार आदि क्षेत्रों में तो क्रियाशील रहती ही है, वह सज्जन-रक्षा, दुष्ट निग्रह आदि कार्यों में भी संलग्न रहती है। नारी का यह रूप भी "योषा" संज्ञा से व्यक्त होता है।
नारी बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही कोटियों के सौन्दर्य की निधि होती है। भर्तहरि ने अपने "श्रंगार शतक" और "वैराग्य शतक" में इसी रूपाधिक्य के कारण नारी को सौन्दर्य का सार और कलाओं की सष्टि के रूप में स्वीकारा है। नारी पुरूष को पुलक और प्रसन्नता प्रदान करती है, अतः "प्रमदा" है। पुरूष में लालसा जागरण की हेतु बनती है अतः "ललना" कहलाती है। मन को रमाने वाली होने के कारण रमणी, गह संचालिका होने के कारण "गहिणी", घर को सुन्दर बनाने वाली हैं, अतः "भामिनी" कही जाती है। अपने पूज्य स्वरूप के कारण वह "महिला" तथा मानवीय गुणों के आधिक्य के कारण मानवी और कामनाओं को उद्दीप्त करने की अपनी सहज प्रवत्ति के कारण वह कामिनी कहलाती है। वह. मानप्रिय होने के कारण "मानिनी" भी कहलाती है।
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