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जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
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socicodeossessoriod षष्ठम अध्याय
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सोलहवीं से २०वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
मध्यकालीन भारत की राजनैतिक एवं धार्मिक परिस्थितियाँ :६.१ मुग़ल साम्राज्य पर जैन धर्म का प्रभाव :
मध्यकाल का उत्तरार्ध प्रधानतया मुगलों का शासनकाल था। ई. सन १५२६ में पानीपत के युद्ध में लोधी वंश के सुलतानों के राज्य को समाप्त करके तथा दिल्ली एवं आगरा पर अधिकार करके मुगल बादशाह बाबर ने मुगल राज्य की नींव डाली थी। बाबर का पुत्र हुमायूँ हुआ था, तथा हुमायूँ का पुत्र मुगल सम्राट अकबर महान् था, वही मुगल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक था। ___अकबर महान् (सन् १५५६-१६०५ई. में) ने सर्वथा शून्य से प्रारंभ करके सुव्यवस्थित, शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माण एवं उपभोग किया। भारतवर्ष के बहुभाग पर उसका एकाधिपत्य था। उसके शासनकाल में देश की बहुमुखी उन्नति हुई। वह महत्वाकांक्षी तो था किंतु गुण-ग्राहक और दूरदर्शी एवं कुशल नीतिज्ञ भी था। युद्धबंदियों को गुलाम बनाने की प्रथा, हिन्दु और जैन तीर्थों पर पूर्ववर्ती सुल्तानों द्वारा लगाये गये जजिया कर आदि को समाप्त करके उसने स्वयं को भारतीय जनता में लोकप्रिय बना लिया था। अनेक हिंदु और जैन भी राजकीय उच्च पदों पर नियुक्त थे। आगरा के निकट शौरीपुर और हथिकंत में तथा साम्राज्य की द्वितीय राजधानी दिल्ली में नंदिसंघ के दिगंबर भट्टारकों की गद्दियाँ थी। दिल्ली में काष्ठासंघ तथा श्वेतांबर यतियों की भी गद्दियाँ थी। श्री रणकाराव, श्री भारमल्ल, श्री टोडर साहू, श्री हीरानंद मुकीम, श्री कर्मचंद बच्छावत आदि अनेक जैन बन्धु राज्य के प्रतिष्ठित पदों पर आसीन् थे और सम्राट के कृपापात्र थे। उसके राज्यकाल में लगभग दो दर्जन जैन साहित्यकारों एवं कवियों ने साहित्य-सजन किया था। इस काल में कई प्रभावक जैन संत हुए थे। जैन मंदिरों का निर्माण हुआ, जैन तीर्थ यात्रा संघ निकाले गये, और जैन जनता ने सैकड़ो वर्षों के पश्चात् धार्मिक संतोष की सांस ली थी। स्वयं सम्राट् ने प्रयत्नपूर्वक तत्कालीन जैन गुरूओं से संपर्क किया और उनके उपदेशों से लाभान्वित हुआ । आचार्य हीरविजयसूरि की प्रसिद्धि सुनकर सम्राट् ने ई. सन् १५८१ में गुजरात के सूबेदार साहबखाँ के द्वारा उनको आमंत्रित किया। सूरिजी अपने शिष्यों सहित ई. १५८२ में आगरा पधारे। सम्राट् ने धूमधाम के साथ उनका स्वागत किया। उनकी विद्वत्ता एवं उपदेशों से प्रभावित होकर उन्हें "जगद्गुरू" की उपाधि दी। विजयसेनगणि ने सम्राट् के दरबार में "ईश्वर कर्ता-धर्ता नहीं है"। इस विषय पर अन्य धर्मों के विद्वानों से शास्त्रार्थ किया और भट्ट नामक प्रसिद्ध ब्राह्मण को वाद में पराजित करके 'सवाई' उपाधि प्राप्त की। सम्राट ने लाहौर में भी गणिजी को अपने पास बुलाया था। यति भानुचंद ने सम्राट् के लिए "सूर्य सहस्त्रनाम' की रचना की। अकबर ने उनके फारसी भाषा के ज्ञान से प्रसन्न होकर "खुशफहम" उपाधि भी प्रदान की थी। मुनि शांतिचंद्र जी ने भी सम्राट को बहुत प्रभावित किया था। एक बार ईदुज्जुहा (बकरीद) के त्यौहार पर जब मुनि जी सम्राट् के पास थे, तो उन्होंने ईद से एक दिन पूर्व सम्राट् से कहा कि मैं आज ही यहाँ से विहार करना चाहता हूँ। क्योंकि अगले दिन यहाँ हजारों लाखों निरीह पशुओं का वध होने वाला है। मुनि श्री ने स्वयं कुरानों की आयतों से यह सिद्ध कर दिखाया कि "कर्बानी का मांस और रक्त खदा को नहीं पहुँचता। खुदा इस हिंसा से प्रसन्न नहीं होता बल्कि परहेजगारी से प्रसन्न होता है, रोटी और शाक खाने से ही रोजे कबूल हो जाते हैं। इस्लाम के अनेक धर्मग्रंथों के हवाले देकर मुनिजी
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