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पूर्व पीठिका
करने की शक्यता भी रखती थी। राज्याभिषेक पति का ही नहीं पत्नी का भी साथ ही साथ किया जाता था। पति के निधन पर विध्वा पत्नी पति के अंतिम संस्कार में भी सम्मिलित हुआ करती थी। राजा दशरथ की पत्नियों ने श्मशान कार्य संपन्न किये थे। शवयात्रा में स्त्रियां आगे चला करती थी, चाहे अन्य अवसरों पर वे पुरूषों का अनुगमन किया करती हों।
रामायणकाल में यह मान्यता थी कि भंगार प्रसाधनों और आभूषणों से पत्नी का तन अधिक कमनीय ओर रमणीय हो उठता है। किंतु पति परायणता का अभाव हो तो ये सारे भूषण दूषण बनकर रह जाते हैं। हंसमुख स्वभाव, प्रगाढ़ अनुरक्ति और मृदु व मधुर भाषिता विनम्रता स्त्री के लिए अत्यावश्यक तत्व हैं तथा ये सही अर्थों में उसके अंगार प्रसाधन हैं।
पति समर्पिता होने के साथ ही नारी का ओज और तेजस्विता भी अपने स्थान पर नीतियुक्त एवं आवश्यक मानी गई हैं। पति के विपथगामी हो जाने की घड़ियों में भर्त्सना कर ,पति को दोषमुक्त कर, पुनः सन्मार्ग पर आरूढ़ करना इसका हेतु था। ऐसे अवसरों पर ओजस्विनी नारी का अपना असंतोष, आक्रोश और खिन्नता प्रकट करना स्वाभाविक ही है। अपने वचन से हटते देखकर कैकेयी ने दशरथ को बुरा भला कहा, शूर्पणखा ने रावण को कर्तव्य विमुख ओर कायर कहा। कौशल्या ने श्रीराम को वन में भेज देने पर दशरथ को तीखे वचन कहे। दशरथ द्वारा क्षमायाचना करने पर कौशल्या को भी पश्चात्ताप हुआ। उसने दशरथ से अपने कुवचनों के लिए क्षमा याचना की। उस युग की मान्यता थी कि यदि पत्नी पति से अनुनय विनय करवाती है तो वह दोनों लोकों से जाती
(ङ) पति के कर्तव्य पत्नी के प्रतिः
पत्नी के प्रति पति के तीन सर्वप्रमुख कर्तव्य थे:(१) पत्नी का भरण पोषण करना। (२) स्त्रीधन का उपयोग न करना। (३) दाम्पत्य सम्बंधी एक निष्ठता का पालन करना।
पुरूष पत्नी का पालन करने के कारण ही "पति" ओर उसका भरण करने के कारण ही "भर्ता" कहलाता है। जो पति अपनी पत्नीयों को आजीविका का आधार मानते थे, उन पतियों को समाज आदर की दृष्टि से नहीं देखता था। वे महाघ्रणित समझे जाते थे। पत्नी के सद्परामर्श पति के लिए आदरणीय एवं विचारणीय होते थे। कोई परामर्श यदि पति मान्य नहीं करता तब भी पत्नी के सम्मान में कमी नहीं आती थी। मंदोदरी की सम्मति रावण ने चाहे अमान्य कर दी हो, किंतु उसने पत्नी को अप्रिय वचन नहीं कहे |पति का आदर्श और कर्तव्य था कि वह एक दारा रत रहे । पर स्त्री सेवन महापाप माना जाता था। पत्नी के सम्मान की रक्षार्थ पति प्राणों की बाजी लगा देते थे। राम-रावण युद्ध के पीछे सीता के सम्मान की रक्षा का ही मूल प्रश्न था। श्री राम ने संकेतित किया था कि नारी के सम्मान की प्रथम रक्षिका वह स्वयं है, और उसका सदाचरण है। न तो घर, न वस्त्र, न दीवारें, न राजसत्कार ही किसी स्त्री के सम्मान की रक्षा कर सकता है। सदाचारिणी स्त्री सर्वत्र वंदनीय सदैव पूज्यनीय होती है।
___ नारी के साथ वार्तालाप में भी पुरूष शिष्ट मृदु और मधुर भाषा का प्रयोग करता था, सम्मानसूचक व्यवहार करता था। बद्धकरों को मस्तक तक पहुँचाकर हनुमान और विभीषण सीता से वार्तालाप करते थे। रथारूढ़ होते समय स्त्रियों को पहले अवसर दिया जाता था। स्त्रियों को घूरना भी वर्जित था। बिना पूर्व सूचना सहसा स्त्रियों के सन्मुख उपस्थित होना, अशिष्टता मानी जाती थी। पति के अभाव में स्त्री से अकेले में बात करना मर्यादाहीन माना जाता था। स्त्री वध सर्वथा वर्जित था। मत्युदण्ड के अपराध में स्त्रियों को कुरूप कर दिया जाता था। मानवता की रक्षार्थ अन्य कोई उपाय न होने पर स्त्रीवध को शक्य माना जाता था। च. स्त्री अवमानना के विविध पक्षः___नारी के गौरव को प्रभावित करने वाले विविध पक्षों पर सम्यक् प्रकार से विचार करने के लिए निम्नसूत्र चिन्तनीय हैं :
१. पर्दा प्रथा : भारतीय समाज में मध्यवर्ती काल में पर्दा प्रथा व्यापक और सुदढ़ रूप से प्रचलित रही, किंतु प्राचीन काल में इसका आरंभ भी नहीं मिलता। वेदकाल में तो स्त्रियां जब घर से बाहर निकलती तो एक अतिरिक्त उत्तरीय या चादर से देह
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