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________________ 138 पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ २.२५.१०४ श्रीकांता :- श्रीकांता बसंतपुर के राजा शबरसेन के पुत्र की कन्या थी। वह अनुपम सौंदर्यशालिनी थी उपवन में श्रीकांता और ब्रह्मदत्त एक दूसरे को देखकर आकर्षित हुए। श्रीकांता के पिता ने उन दोनों का विवाह कर दिया | २.२५.१०५ रत्नावती :- रत्नावती नगरसेठ धनप्रभव की पुत्री थी। कौशांबी में कुर्कुट युद्ध देख रहे चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त से आकर्षित होकर उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा। ब्रह्मदत्त ने उसे स्वीकार किया। मगधपुर की ओर जाते हुए भयंकर डाकू दल ने उनके रथ को घेर लिया। ब्रह्मदत्त ने भीषण बाण वर्षा की तथा ब्रह्मदत्त का मित्र वरधनु कहीं लुप्त हो गया। ब्रह्मदत्त व्याकुल होकर रोने लगा। तब रत्नावती ने सूझ बूझ से अपने पति को समझाया कि इस घोर वन में रूकना संकट को आमंत्रित करना है। अतः हमें यहाँ से शीघ्र चलना चाहिए। सुरक्षित स्थान पर पहुँचकर हम उसकी खोज करेंगे। इस प्रकार संकट की घड़ियों में भी पति को धीरज दिलाकर आश्वस्त किया।३७६ २.२५.१०६ खण्डा और विशाखा :- खंडा और विशाखा वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी के शिव मंदिर नगर के नरेश ज्वलनशिखजी की पुत्रियाँ थी। एक बार उनके पिता ने एक महात्मा से पूछा कि दोनों बहनों के पति कौन होंगे। महात्मा ने बतलाया जो पुरूष इनके भाई को मारेगा वही इनका पति होगा। परिणामस्वरूप ब्रह्मदत्त के साथ उनका विवाह हआ और वह दे पुष्पवती के साथ व्यतीत करने लगी।३७० २.२५.१०७ पुण्यमानी :- पुण्यमानी चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त की पत्नी थी।३७८ २.२५.१०८ श्रीमती : धनकुबेर सेठ वैश्रमण की पुत्री थी तथा ब्रह्मदत्त की पत्नी थी।३७६ २.२६ जैन कथाओं में वर्णित जैन श्राविकाएँ : २.२६.१ लीलावती :- सागरदत्त के कनिष्ठ पुत्र श्रीराज की पत्नी थी। लीलावती दृढ़ किंतु पतिव्रता सन्नारी थी। एक बार ठग और चोरों के चंगुल में वह फंस गई थी, किंतु अपनी बुद्धि चातुर्य से उसने शील धर्म की रक्षा की है, साथ ही उन ठगों का हृदय परिवर्तित कर उन्हें सभ्य नागरिक भी बनाया।८० २.२६.२ रोहिणी :- श्रमणोपासक सुदर्शन सेठ एवं श्रमणोपासिका सेठानी मनोरमा रोहिणी के माता-पिता थे। बालवय में ही वह पति विहीन हो गई। और धार्मिक संस्कारों के प्रभाव से वह अपना अधिकांश समय धर्म-ध्यान तथा तप त्याग में करने लगी। अन्य श्राविकाओं को भी वह धर्म कथायें सुनाने लगी। समय के साथ-साथ उसकी धर्मकथा विकथा में परिवर्तित हो गई। नगर के नरेश और पटरानी के विषय में अपशब्द बोलने से वह तिरस्कृत हुई। नगर से निकाली गई तथा दुर्गति रूप नरक में गई ।३८१ २.२६.३ चंद्रा :- भरत क्षेत्र के वर्धमानपुर नगर के एक कुलपुत्र सिद्धड़ की स्त्री चंद्रा थी। चंद्रा का एक पुत्र था जिसका नाम था सर्ग। ये तीनों प्राणी मेहनत मजदूरी करके अपना पेट नहीं भर पाते थे। एक दिन किसी व्यापारी के यहाँ सुबह से शाम तक चन्द्रा भूखी प्यासी काम करती रही। शाम को सेठ ने मजदूरी भी नहीं दी वह घर लौट आई। सर्ग गाय बछड़े को लेकर सवेरे से ही जंगल चला गया था। जोरों की भूख उसे लग रही थी। मां की इंतजार में वह व्याकुल होकर क्रोध मे मां से बोला-पापिने! दुष्टे! क्या व्यापारी ने तुझे शूली पर चढ़ा दिया था, जो तूं अब तक वहीं बैठी रहीं? चंद्रा को भी सर्ग की विष भरी वाणी से क्रोध आ गया। वह सर्ग से बोली "क्या तेरे हाथ कट गये थे जो तूं न सांकल खोल सका और न ही छींके पर से रोटियां उतार कर खा सका। इस प्रकार दोनों ने एक दूसरे से कठोर वचन कहे तथा अशुभ कर्मों का बंधन कर लिया। कालांतर में मुनि के उपदेश को सुनकर सर्ग तथा चंद्रा ने श्रावक के १२ व्रतों की आराधना की तथा समाधिमरण से देव भव को प्राप्त किया। तत्पश्चात् वे दोनों अरूण देव और देयिणी के रूप में ताम्रलिप्ती नगर में उत्पन्न हुए। देयिणी एक बार सखियों के साथ उद्यान में भ्रमण कर रही थी। चोर ने कंगन सहित उसकी कलाई काट दी। संयोग से अरूण देव उसी उद्यान में बैठा हुआ था। चोर सिपाहियों के भय से अरूणदेव के समीप कलाई तथा छुरी रखकर कहीं छिप गया। राजा के सैनिकों ने अरूण देव को पकड़ लिया। उसे शूली का हुकुम हुआ। अरूण देव के मित्र द्वारा वास्तविकता प्रकट हुई। पिछले जन्म में किये गये कठोर वचनों के प्रयोग के कारण ऐसा कठोर शारीरिक व मानसिक दुःख उन्हें भुगतना पड़ा ।३८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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