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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.४
देवगढ़ की कला में जैन श्राविकाओं का अवदान :
"देव' शब्द देवता का एवं “गढ़' शब्द दुर्ग का वाचक है। यहाँ दुर्ग के भीतर देवमूर्तियों की प्रचुरता होने से ही संभवतया इस स्थान का नाम देवगढ़ रखा गया होगा। ई. सन् की नौवीं-दसवीं शती में यहाँ देववंश का शासन भी रहा था। मथुरा के समान देवगढ़ का श्रावक-श्राविका वर्ग कर्त्तव्यपालन एवं धर्माचरण में साधु-साध्वी वर्ग से पीछे नहीं था। अतिथियों का सत्कार करते हुए श्रावक-श्राविका वर्ग की तत्परता और श्रद्धा दर्शनीय होती थी। जिन प्रतिमाओं के समक्ष नत्य और संगीत आदि के कार्यक्रमों की प्रस्तुति का प्रचलन देवगढ़ में प्रचुरता से था ऐसा स्पष्ट परिलक्षित होता है। जिन मंदिरों के प्रवेश द्वारों पर अर्हत् प्रभु के समक्ष नवधा भक्ति में संलग्न श्रावक-श्राविकाएं समान रूप से सहभागी बनते थे। श्राविकाएं पूजन सामग्री लेकर पूजा के लिए तत्पर रहती थी। कई श्राविकाएं पाठशालाओं में जाकर शिक्षा भी ग्रहण करती थी। आचार्य जी की सेवा में खड़े एक चंवरधारी श्रावक के कंधे पर झोली टंगी है, जिसके दोनों हाथ कलाइयों के ऊपर से खंडित हैं तथा झुका हुआ मस्तक दर्शकों को श्रद्धा व भक्ति से अभिभूत कर देता है। आचार्य श्री के पीछे एक श्राविका संभवतः उक्त श्राविक की पत्नी होगी, छत्र धारण किये खड़ी है। यह छत्र किंचित खंडित होकर भी अपनी कलागत विशेषता के लिए उल्लेखनीय है। श्राविका की वेश-भूषा और आभूषण सादे किंतु मोतियों के हैं। उत्तरीय पीछे से हाथों में फंसकर पीछे निकल गया है। मुख-मंडल खंडित है। केश-सज्जा खजुराहो की कला का स्मरण दिलाती है। इसी मंदिर में एक मूर्तिफलक के पादपीठ में विनम्र श्राविका की वेश-भूषा है।
देवगढ़ में शिक्षा का प्रचार बहुत अधिक था। शिक्षा का कार्य प्रायः साधु साध्वी वर्ग द्वारा सम्पन्न होता था। उनकी कुछ कक्षाओं में केवल साधु, कुछ में साधु और साध्वियां तथा कुछ में साधु साध्वियों के साथ श्रावक श्राविकाएं भी सम्मिलित होती थी। छात्राओं को शिक्षा देने का कार्य विदुषी महिलाओं द्वारा सम्पन्न होता था। प्राचीन भारत में उन्हें "उपाध्यायिनी" और "उपाध्याया” कहा जाता था। सागरसिरि, सालसिरि, उदयसिरि, देवरति, पद्मश्री, रत्नश्री, सावित्री, सलाखी, अक्षयश्री, क्षेमा, गुणश्री, पूर्णश्री, कालश्री, जसदेवी, ठकुरानी, सदिया आदि श्राविकाओं ने विभिन्न अवसरों पर विविध धर्म कार्यों के लिए धनराशि दान की थी। गुरु-शिष्य परंपरा महिलाओं में भी प्रचलित थी। सागरसिरि नामक महिला गुरुणी की दो शिष्याओं सालसिरि और उदयसिरि के नाम उत्कीर्ण हुए हैं। अध्ययन-अध्यापन विविध विषयों का होता था। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि वहाँ समयसार जैसे अध्यात्मशास्त्र, ज्ञानार्णव जैसे योगशास्त्र और यशस्तिलक चंपू जैसे काव्यग्रंथों का पठन पाठन होता था। अधिकांश अभिलेखों में मूर्तियों और मंदिरों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार आदि के हेतु दान करने वाले श्रावक श्राविकाओं के उल्लेख मिलते हैं जिनसे उनके जीवन की सम्पन्नता का बोध होता है।
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