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व्याख्यान ३ :
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के समीप जाकर उसने सिंह को ललकारा । सिंह शीघ्र ही त्रिपृष्ठ पर गर्ज कर टूट पड़ा किन्तु त्रिपृष्ठने उसके दोनों होठों को पकड़ कर शुक्तिसंपुट की तरह चीर डाला । उस समय भरते हुए सिंहने अपनी खुद की निन्दा की किअहो ! मैं सिंह होते हुए भी एक मनुष्य मात्र के हाथ से ही मारा गया । उस को खेद प्रगट करते देख कर त्रिपृष्ठ के सारथीने उस को शान्त करने के लिये मधुर वाणी से कहा कि - हे सिंह ! ये कुमार वासुदेव होनेवाले हैं, इनको तू एक रंक मनुष्य न समझ । अरे तू तो नरेन्द्र के हाथ से मारा गया है, फिर शोक किस लिये करता है ? मनुष्य लोक में ये त्रिपृष्ठ कुमार ही एक सिंह है और तू तिर्यक योनी में उत्पन्न हुआ सिंह है । इस प्रकार के शान्तिदायक शब्द सुन कर हर्षित हुए उस सिंहने समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त की ।
तत्पश्चात् उन त्रिपृष्ठ, सारथि और सिंह तीनों के जीव भवसागर में भ्रमण करते हुए इस समय में त्रिपृष्ठ का जीव तो मैं हुआ हूँ, सिंह का जीव वह कृषीबल हुआ है और सारथि का जीव तू इन्द्रभूति ( गौतम ) हुआ है । पूर्वभव में तूने मधुर वाणीद्वारा उसको प्रसन्न किया था और मैने मारा था, अतः इस भव में उसका तुम्हारे पर स्नेह है और मेरे पर द्वेष है । इसी प्रकार इस भव, नाटक में स्नेह और वैर का कारण समझना चाहिये किन्तु वह कृषक शुक्लपक्षी