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॥ चतुर्थः स्तंभः॥
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व्याख्यान ४६ वां समकित की छ यतना में से प्रथम दो यतना अन्यतीर्थिकदेवानां, तथान्यैर्ग्रहीताहताम् । पूजनं वन्दनं चैव, विधेयं न कदापि हि ॥१॥ __ अन्यतीर्थियों के देवों तथा अन्यद्वारा ग्रहण की हुई अरिहंत की मूर्तियों का पूजन, वन्दन कदापि नहीं करना चाहिये ।
भावार्थ:-अन्य तीर्थियों के शंकरादिक देवताओं का पूजन-वंदन आदि कदापि नहीं करना यह पहली यतना कहलाती हैं । तथा सांख्य, बौद्धादिक अन्य दर्शनियोंद्वारा ग्रहण की हुई जिनप्रतिमा का पूजन-वंदन आदि कदापि नहीं करना दूसरी यतना कहलाती है । अन्य मतावलम्बियोंद्वारा ग्रहण की हुई जिनप्रतिमाओं का पूजनादिक करने से अन्य