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व्याख्यान ५५ : .
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हैं। हमारे कहनेनुसार देख कि विरोध नहीं आयगा । विज्ञान अर्थात् ज्ञान और दर्शन का उपयोग । उस से धन (निबिड़गाढ़) ऐसा जीव इस ज्ञेयभावना परिणाम को प्राप्त हुए महाभूत (घटादिक) से उत्पन्न होकर अर्थात् घटादिक के ज्ञानरूप उपयोगद्वारा उत्पन्न होकर, उसी उपयोग में आये हुए घटादिक का नाश होने से कालक्रम से (एक काल में एक वस्तु का उपयोग और दूसरे काल में दूसरी वस्तु का, इस प्रकार) दूसरी वस्तु का उपयोग होने पर प्रथम वस्तु का उपयोग नाश हो जाता है परन्तु आत्मा का सर्वथा नाश नहीं होता क्योंकि यह एक ही आत्मा तीन स्वभाववाला है । वह इस प्रकार है-पूर्व वस्तु के उपयोग का नाश होने से विनाशी, दूसरी वस्तु के ज्ञान का उपयोग होने से उत्पन्न स्वभाववाला और अनादिकाल से प्रवृत्त हुए सामान्य विज्ञान की संतति से अविना ध्रुव स्वभावी आत्मा है । इसी प्रकार अन्य सर्व वस्तुओं को भी तीन स्वभाववाली जानना चाहिये। अब न प्रेत्यसंज्ञास्ति अर्थात् दूसरी वस्तु के उपयोग के समय पूर्व वस्तु का ज्ञान अर्थात् संज्ञा नहीं होती क्योंकि अभी दूसरी वस्तु का उपयोग हो रहा है उसकी संज्ञा है । हे गौतम! इन युक्तियों से तू “जीव" का होना स्वीकार कर ।
इस प्रकार तीनों जगत के स्वरूप को जाननेवाले भगवानने सर्व जीवों को प्रतिबोध करने के उपाय की निपुणता