Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Vijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
Publisher: Vijaynitisuri Jain Library

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Page 599
________________ . ५७० श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : को कुछ भी प्रशंसा क्यों नहीं करते ? क्या तुम्हें यह रसोई उत्तम मालूम नहीं होती ?" मंत्रीने कहा कि-"हे स्वामी ! मुझे शुभ अथवा अशुभ वस्तु देख कर कुछ भी विस्मय नहीं होता क्योंकि पुद्गल स्वभाव ही से घड़ी में सुगंधी, घड़ी में दुगंधी, घड़ी में सुरस, घड़ी में निरस हो जाते हैं, अतः उनकी प्रशंसा या निन्दा करना अयुक्त है।" राजा को उसके वचनों पर विश्वास नहीं हुआ। एक बार राजा सर्व परिवार सहित उद्यान में जाता था वहां मार्ग में नगर फिरती खाई थी वह आई । उसमें जल कम था इससे उस जल में कीड़े पड़ गये थे । दुगंध फैली रही थी और सूर्य के ताप से उबल गया था। उसकी दुर्गंध से राजा तथा दूसरोंने नासिका को वस्त्र से ढक कर पानी की दुर्गंधता की निन्दा करने लगे कि-अहो ! यह जल अत्यन्त दुगंधमय है । यह सुन कर मंत्रीने कहा कि-हे राजा ! इस जल की निन्दा करना अयुक्त है क्योंकि यह ही जल समय पर प्रयोगद्वारा दुगंधी होने पर भी सुगंधी हो जाता है । राजाने उसके वचनों को स्वीकार नहीं किया । फिर मंत्रीने गुप्तरूप से अपने खानगी नोकरद्वारा उस खाई के जल को मंगवा कर वस्त्र से अच्छी तरह छान कर एक कोरे मिट्टी के घड़े में डाला। फिर उसमें निर्मली (कतक) फल का चूर्ण डाल उस जल को निर्मल किया । फिर उसको वापस छान कर दूसरे कोरे घड़े में डाला । इस प्रकार इक्कीस दिन तक उस जल को छान कर भिन्न भिन्न

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