________________
। ५७२ :
श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
छमस्थ जीव ज्ञानावरणीयादिक कर्मों के आवरण के कारण सम्यक् प्रकार से नहीं जान सकते । फिर वे शास्त्र के उन वचनों को अवश्य मानते हैं । ___ अपितु हे राजा ! इस जगत में वस्तु की अनुपलब्धि (अप्राप्ति) दो प्रकार से होती है (एक तो सत् वस्तु की अप्राप्ति और दूसरी असत् वस्तु की अप्राप्ति) इन में खरगोश की सींग, आकाशपुष्प, आदि असत् वस्तु की प्राप्ति कहलाती है अर्थात् ये वस्तुये दुनियां में है ही नहीं । दूसरी सत् वस्तु की प्राप्ति वह आठ प्रकार की है। उन में अति दूर होनेवाली वस्तु की प्राप्ति न हो यह पहला प्रकार है । इसके भी देश, काल और स्वभाव ये तीन भेद है। जैसे कोई पुरुष दूसरे गांव गया इससे वह दिखाई नहीं देता । इससे क्या वह पुरुष नहीं है ? परन्तु देश से अति दूर चले जाने के कारण उसकी प्राप्ति नहीं होती । इसी प्रकार समुद्र के दूसरे किनारे पर मेरु आदि है, वे सत् होने पर भी दूर होने के कारण दिखाई नहीं देते अथवा काल से दूर होने पर भी दिखाई नहीं देते जैसे मरे हुए खुद पूर्वज तथा अव होनेवाले पद्मनाम जिनेश्वर आदि काल से दूर होने के कारण दिखाई न देते । तीसरा प्रकार स्वभाव से दूर हो वे भी दिखाई नहीं देते जैसे आकाश, जीव, भूत, पिशाच आदि दिखाई नहीं देते । ये पदार्थ हैं परन्तु चर्मचक्षु-गोचर नहीं हो सकते ।