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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
से सर्वमुनियों को वन्दना कर तीन नरक का आयुष्य भी तोड़ डालूं । जिनेश्वरने उत्तर दिया कि - हे कृष्ण ! उस समय जो तुम्हारा तद्दन निःस्पृह भाव था वह अब जाता रहा है, अतः फिर वन्दना करने से वह लाभ नहीं मिलसकता परन्तु जगत के सर्व उत्तम पदार्थ तुझे प्राप्त है इस लिये अब उनसे अधिक क्या चाहता है ? अपितु तीसरे नरक का आयुष्य तो निदान ( नियाणु) कर बांधे हुए वासुदेवपन के साथ ही है इसलिये उसका अभाव तो हो ही नहीं सकता । कहा भी है कि - " अनियाणकडा रामा" आदि बलदेव नियाणु किये बिना होते हैं और वासुदेव तो नियाणुं करने से ही होते हैं। वे कम से कम तीसरा नरक में तो अवश्य जाते ही हैं, अतः तेरा तीसरे नरक का आयुष्य छूटना असंभव है । ऐसा प्रभु के मुंह से सुन कर प्रभु के वचनों को सत्य मान कृष्ण अपने घर चला गया ।
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यहां पर यदि किसी को शंका हो कि तीसरे नरक का उत्कृष्ट आयुष्य सात सागरोपम का बतलाया है और नेमिनाथ से लगा कर आनेवाली चोवीशी में बारहवें अमम जिनेश्वर हों तब तक तो अड़तालीस सागरोपम का समय होता है। तो फिर सात सागरोपमवाले एक भव में उतना समय कैसे व्यतीत हो कि जिससे कृष्ण नरक से निकल कर तीर्थकर बन सके ? इसका यह उत्तर है कि - श्री हेमचन्द्र