________________
: ५३८ :
श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : का निर्वाह नहीं हो सकने से स्वदेश छोड़ कुटुम्ब सहित उञ्जयिनी नगरी में आ पहुंचा । वहां बिना किसी की सहायता के कोई राजा से नहीं मिल सकता था, अत: विचार कर अन्त में उस कोकाशने काष्ठ के कई कपोत बनाये । उन में कारिगीरी से ऐसी किलिये लगाई थी कि-वे कपोत उड़ कर राज्य के धान्य के कोठार में जा जीवित कपोत सदृश चोंचद्वारा चावल, दाल आदि हरेक प्रकार का अनाज अपने काष्ठ शरीर में जितना समासके उतना भर कर पीछे कोकाश के पास लौट आते थे । फिर उन में से वह अनाज निकाल उन से कोकाश अपने कुटुम्ब का भरणपोषण किया करता था । एक बार धान्य के रक्षकोंने सच्चे कपोतों समान अनाज से भरे हुए उन काष्ठ कपोतरूप चोरों को धान्य के कोठार से निकलते हुए देखलिया। इस से आश्चर्यचकित हो वे रक्षक उन कपोतों की खोज करने को उन के पीछे पीछे गये तो उन कपोतों को कोकाश के घर में प्रवेश करते देखा । इसलिये वे कोकाश को पकड़ कर गजा के पास ले गये । राजा के पूछने पर उसने सब वृत्तान्त सचसच कह सुनाया। कहा है किसत्यं मित्रैः प्रियं स्त्रीभिरलीकं मधुरं द्विषा । अनुकूलं च सत्यं च, वक्तव्यं स्वामिना सह ॥१॥
भावार्थ:--मित्र के पास सत्य बोलना, स्त्री के पास