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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
जल्दी वापस लौटा, वापस लौटा क्योंकि जानने के बाद निषिद्ध आचरण करने से तो मूल व्रत का भंग होता है और अजाने व्रत का भंग होने से अतिचार लगता है जो प्रतिक्रमणादिक करनेद्वारा शुद्ध हो सकता है। अहो ! मुझ कौतुकप्रिय को धिक्कार है कि-जिससे मैने आत्महित भी नहीं जाना । इस प्रकार जैसे अपना सर्वस्व खो गया हो उस प्रकार राजा शोक करने लगा। उस समय कोकाशने गरुड़ को वापस घुमाने के लिये दूसरी किली को पकड़ा तो यह जान कर कि यह किली दूसरी है वह चिन्तातुर होकर बोला कि-हे देव ! दुर्दैव के वश से किसी दुष्टने इस किली को बदल दिया है और इस किली के बिना गरुड़ पीछा नहीं लौट सकता है, अतः अब तो थोड़ी दूर और जाकर नीचे उतर जायें तो अधिक अच्छा होगा क्योंकि यदि यहीं पर उतरेंगे तो यह शत्रु का राज्य होने से अनर्थ का होना संभव है । यह सुन कर राजाने कहा कि-हे मित्र ! अनन्त भव तक दुःख देनेवाले व्रतभंग करनेरूप वाक्य तू क्योंकर बोलता है ? अनाभोगादिक से (अजाण से) कभी निषिद्ध का सेवन हुआ हो तो व्रत के मालिन्यरूप अतिचार लगता है और जानबूझ कर जो व्रत का उल्लंघन किया जाय तो व्रत का भंग ही होता है । अतिचार से खंडित हुआ व्रत तो कच्चे घड़े के सदृश पीछा जोड़ा जासकता है परन्तु अनाचार से हुआ व्रत भंग तो पके घड़े के सदृश पीछा नहीं