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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
बाद में पश्चिम दिशा में गये । वहां सिद्धाचल और गिरनार तीर्थ को देख उसका वर्णन किया । इसी प्रकार उत्तर दिशा में गये तो कोकाशने अष्टापद नामक कैलाश पर्वत, शाश्वत सिद्धायतन का तथा जिनेश्वर के कल्याणक के स्थान दिखाये । हस्तिनापुर आने पर उसका वर्णन किया कि-हे स्वामी ! यहां सनत्कुमार आदि पांच चक्रवर्ती तथा पांच पांडव हुए थे । श्रीऋषभदेव स्वामी के वरसीतप का पारणा भी यहीं हुआ था । शान्तिनाथ आदि तीन जिनेश्वर के मोक्ष कल्याणक बिना शेष चार चार कल्याणक यहीं हुए हैं। विष्णुकुमारने उत्तरवैक्रिय शरीर यहीं पर किया था तथा कार्तिक श्रेष्ठीने एक हजार आठ पुरुषों सहित यहीं पर दीक्षा ग्रहण की थी आदि अनेक शुभ कार्य यहां पर हुए हैं। इस प्रकार सदैव नये नये तीर्थों का महात्म्य सुना कर कोकाशने राजा को जैनधर्म पर रुचिवाला बना दिया। फिर एक बार कोकाश राजा को ज्ञानी गुरु के पास ले गया। गुरुने धर्मोपदेश करते हुए कहा कि-गृहस्थियों के लिये समकित सहित पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाक्त मिलकर बारह व्रत कहे गये हैं। अन्य धर्म के नियम ग्रहण करने से उनके फल में सामान्य वर्षा के समान कदाच संदेह रहता है परन्तु जैनधर्म का फल तो पुष्करावर्त मेघ के सदृश मिलता ही है-निष्फल नहीं जाता। आदि धर्मोपदेश सुन कर राजाने समकित सहित बारह व्रत ग्रहण किये। उन में से