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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
. अब समकितदृष्टि का ज्ञान ही ज्ञान कहलाता है । इस विषय में कहा है कि-- सदाद्यनन्तधर्माढ्यमेकैकं वस्तु वर्तते । तत्तथ्यं मन्यते सर्वं श्रद्धावान् ज्ञानचक्षुभिः ॥१॥ ___ भावार्थ:--प्रत्येक वस्तु सत् , असत् आदि अनंत धर्मयुक्त है उसे सर्व ज्ञानचक्षु से श्रद्धावान् सत्य मानते है । एकान्तेनैव भाषन्ते, वस्तुधर्मान् यथा तथा । तस्मादज्ञानता ज्ञेया मिथ्यात्विनां निसर्गजा ॥२॥
भावार्थ:-मिथ्यात्वी सर्व वस्तु के पृथक् धर्मों को जैसे तैसे (किसी भी युक्ति से) एकान्तपन से ही कहते हैं अतः उन मिथ्यात्रियों की स्वाभाविक ही अज्ञानता है ऐसा समझना चाहिये । __ प्रत्येक वस्तु सत् , असत् आदि अनन्त धर्मयुक्त है जैसे एक घट रूपी वस्तु है जो अपने रक्तपनादि गुणोंद्वारा सत् है और दूसरे पटादिक के धर्म से असत् है आदि शब्द से यहां पुद्गलों के साथ एकपन (अभिन्नपन) है, व्यवहार से माना हुआ है कि-घट हैं, निश्चय से तो पट, लकुट (लकड़ी), शकट, स्वर्ण आदि धर्म युक्त है, इससे यह घट पूर्णरूप हुआ भी कदाचित् उस भव को भी प्राप्त करता है। इसी प्रकार जीव भी गायपन, हाथीपन, स्त्रीपन, पुरुषपन