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व्याख्यान ६१ :
तो एक ही सरिखे मिथ्यात्व के पुद्गल साधक बाधक दोनों प्रकार के गुणों के विषय में किस प्रकार प्रवृत्त हो सकते हैं ? यदि दोनों वस्तु भिन्न हो तो ऐसा होना संभव है। यदि ऐसा कहो कि-मिथ्यात्व के पुद्गलों में से मदनपन (मेलाप) जाता रहा इस लिये वे शुद्ध सम्यक्त्व मोहनीय होते हैं तो फिर उनमें मदनपन (मेलाप) क्या है ? अर्थात् मेलापन कहां रहा कि जिससे वे मिथ्यात्व के पुद्गल कहलाता हैं ?
इस शंका का उत्तर गुरु इस प्रकार देते हैं कि-चार प्रकार (चोठाणिया) के महारस के स्थान में रहे (चोठाणिया रसवाला) मिथ्यात्व के पुद्गल मिथ्यात्वरूप बाधकपन को तथा विभावपन को प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु कोदरा के छिलकों के त्याग के समान उन पुद्गलों में से महारस के अभाव से अनिवृत्ति करण करने से एक ठाणिया रस किया जिससे यथार्थ वस्तु परिणाम का व्याघात न करे ऐसा समकित मोहनीय होता है । इसमें कुछ शंकादिक उत्पन्न होती है इससे इसे मोहनीय कहा है। उस समकित मोहनीय का सर्वथा क्षय होने से चरमदर्शन (क्षायिक समकित) होता है जिसमें शंकादिक अतिचार कभी भी नहीं लगते । इस प्रकार पुद्गलों के भिन्न भिन्न नहीं होने पर भी उन तीन के प्रकार होते हैं जिसमें शंका की कोई बात नहीं है।