Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Vijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
Publisher: Vijaynitisuri Jain Library

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Page 593
________________ : ५६४ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : यहां श्लोक में जो मिध्यात्व के पुद्गलों कहे गये हैं उनको उपलक्षण से अनंतानुबंधी कषाय के जो पुद्गल हैं वे भी ग्रहण करने चाहिये । उनका क्षयोपशमादिद्वारा अभाव होने से मलिनता के अभाव से उज्ज्वल हुए वस्त्र के समान जीव के प्रदेशों के विषय में निर्मलतारूप जो श्रद्धा गुण प्रकट होता है वे ही वस्तुता से समकित कहलाता है । यहां पर यदि शिष्य शंका करे कि-जीव मिथ्यात्व के पुद्गलों के ही तीन पुंज करता है - शुद्ध, अर्धशुद्ध तथा अशुद्ध । वह इस प्रकार कि - कोद्रवा छिलकों सहित होते हैं उनको छाण आदि लगा कर छिलके निकाल शुद्ध कोद्रवा किये जाते है । उन में से जिसके तद्दन छिलके निकल जाये वे शुद्ध, आधे रहे वे अर्धशुद्ध और जिनके छिलके ज्यों के त्यों रहें वे अशुद्ध । इस प्रकार तीन पुंज करता है । इस विषय में कहा है कि I दंसणमोहं तिविहं सम्मं मीसं तहेव मिच्छत्तम् । सुद्धमद्धविसुद्धमविसुद्धं, तं हवइ कमसो ॥१॥ भावार्थ:-- दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं । सम्यFree, मिश्र और मिथ्यात्व । इन में से पहला शुद्ध, दूसरा अर्धविशुद्ध और तीसरा अविशुद्ध इस प्रकार अनुक्रम से तीन पुंज होते हैं ।

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