Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Vijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
Publisher: Vijaynitisuri Jain Library

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Page 591
________________ . ५६२ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : रुद्राचार्य का अलौकिक क्रियादंभ है कि-जिससे अब तक हम इसे जान भी न सके और इसीलिये हमने इसकी अब तक सेवा की है। यह विचार कर उन्होंने उस अभव्य गुरु का त्याग कर दिया और संयम का प्रतिपालन कर स्वर्ग सिधारे । वहां से चव कर वे पांच सो ही दिलीप राजा के पुत्र हुए । उनके युवावस्था को प्राप्त होने पर वे हस्तिनापुर में किसी राजपुत्री के स्वयंवर में गये। उस समय रूद्राचार्य (अंगारमर्दक) का जीव अनेकों भवों में भ्रमण कर ऊँट हो गया था । उस ऊँट पर बहुत-सा भार लाद कर उसका स्वामी उसी ग्राम के पास होकर निकला। उस ऊँट को भार के कारण बराड़ा मारते हुए देख कर वे पांच सो कुमार विचार करने लगे कि-अहो ! यह ऊँट पूर्व कर्म के योग से इस भव में अनाथ और अशरण होकर महादुःख उठाता है। श्रीदेवेन्द्र आचार्यने कर्मग्रन्थ में कहा है कि-"तिरियाउ गूढहियआ सट्टो ससल्लो इत्यादि-गूढ़ हृदयवाला, शल्यवाला और शठतावाला प्राणी तिथंच का आयुष्य बांधता है आदि।" इस प्रकार विचार करते हुए उन पांच सो कुमारों को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया जिससे उनको उनका पूर्व भव दिखाई दिया, अतः उसको पूर्व भव का उपकारी गुरु जान कर, उसके स्वामी को बहुत द्रव्य दे कर

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