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व्याख्यान ५९
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रूप से कहा कि-हे स्वामी! तुम चिन्ता का त्याग कर श्री जिनेश्वर के ध्यान में ही तत्पर रहो । मैं थोड़े ही दिनों में शत्रु को विडंबना में डालता हूँ। ऐसा कह कर कोकाशने गुप्त रीति से काकजंघ के पुत्र को सैन्य सहित बुलाया और उसके समीप आने की खबर मिलने पर उसी दिन शुभ मुहूर्त बतला कर कनकप्रभ राजा को परिवार सहित उस कमलगृह में बैठने को कहा । राजा भी उसे देख कर गर्व से सौधर्म इन्द्र के भुवन का भी तिरस्कार करता हुआ हर्षित हुआ। फिर सब को उस पद्मगृह में बिठाकर प्रफुल्ल मुख से कोकाशने कहा कि-हे राजा ! तुम सब अपने अपने स्थान पर सावधान होकर बैठ जाओ, मैं अभी किली के प्रयोग से इस विमान को आकाश में उड़ा कर तुमको कौतुक दिखाता हूँ। उसी प्रकार वे भी कौतुक देखने के लिये अपने अपने स्थान पर बैठ गये। फिर कोकाश किसी बहाने से उस कमलगृह से बाहर निकल कर बोला कि-हे मूढ़ लोगों ! मेरे स्वामी की विडम्बना करने का फल चखों । ऐसा कह कर उसने ज्योंहि किली को फिराया कि-तुरन्त ही निद्रा से घूर्णायमान हुए नैत्र के समान वह सम्पूर्ण भुवन कमल के समान बन्द हो गया और उसमें स्थित सर्व लोग भ्रमर की तरह हाहारव करने लगें । यहां कमल और भ्रमर पर अन्योक्ति से कहे हुए श्लोक घटित हो सकते हैं । वे इस प्रकार हैं