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व्याख्यान ६० :
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माता, पिता, गुरु को वंदना नहीं करना चाहिये और इसी प्रकार असंयति शेठ, राजा अथवा देवता की भी सेवा नहीं करना चाहिये । भट्ठायारो सूरि, भट्ठायाराणुविक्खओ सूरि । उम्मग्गट्टिओ सूरि, तिन्नि वि मग्गा पणासंति ॥३॥
भावार्थ:-भ्रष्ट आचारवाला सूरि, भ्रष्ट आचारवाले को नहीं रोकनेवाला सूरि और उन्मार्ग की प्ररूपणा करने वाला सूरि-ये तीनों धर्ममार्ग का नाश करनेवाले हैं।
बाहर से आचार पालनेवाले के लिये श्री अनुयोगद्वार सूत्र में कहा है कि-जो साधु के गुणों से मुक्त साधु क्रियाओं को करते हैं वे छ जीवनिकाय पर दयावाले नहीं होते, अश्व के सदृश चपल होते हैं, हाथियों के सदृश निरंकुश (मदोन्मत्त) होते हैं, शरीर को घढार मढार मसल समाल कर रखते हैं और धोपे धुपे उज्वल वस्त्र पहिनते हैं और जिनेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन कर स्वच्छन्दपन से विचरते हैं वे दोनों समय जो आवश्यक क्रिया करते हैं वे लोकोत्तर द्रव्य आवश्यक कहलाता हैं आदि । अपितु प्रज्ञापना सूत्र की वृत्ति में भी कहा है किपरमत्थ संथवो वा, सुदिट्ठ परमत्थसेवणा वा वि । वावन्न कुदंसण-वज्जणाय सम्मत्तसद्दहणा ॥१॥