Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Vijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
Publisher: Vijaynitisuri Jain Library

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Page 586
________________ व्याख्यान ६० : : ५५७ : सकता है, इससे अधिक अन्य तीन सामायिक का लाभ उसे नहीं मिल सकता । उपरोक्त भव्य तथा अभव्य दोनों प्रकार के जीव मिथ्यात्वद्वारा युक्त होने पर भी धर्मादिक की प्ररूपणा कर तथा ऊँचे प्रकार की समिति, गुप्ति धारण कर दूसरों को प्रतिबोध करते हैं तथा शासन को दीपाते हैं, अतः कारण के विषय में कार्य का उपचार करने से उनको दीपक समकित कहते हैं । इस प्रसंग पर निम्नस्थ अंगारमर्दकाचार्य का प्रबन्ध प्रसिद्ध है । अंगारमर्दकसूरि का प्रबन्ध क्षितिप्रतिष्ठित नगर में श्रीविजयसेनसूरि के शिष्यने एक बार रात्रिमध्य स्वप्न में पांचसो हाथियों से युक्त एक सूकर देखा जिसका हाल प्रातः काल होने पर उन्होंने गुरु से निवेदन किया जिसे सुन कर गुरुने कहा कि आज कोई अभव्य गुरु (आचार्य) पांच सो शिष्यों सहित यहां आयेगा । फिर उसी दिन रुद्र नामक आचार्य पांच सो शिष्यों (साधुओं) सहित उसी ग्राम में आये । उस दिन विजयसेनसूरिने उन की अशनादिक से भक्ति की । फिर दूसरे दिन अपने शिष्यों को उस रूद्राचार्य की अभव्यता निश्चय कराने के लिये लघुनीत करने के स्थान पर गुप्त रीति से कोयले बिछवादिये । रात्री में उस रूद्राचार्य के शिष्य जब लघुनीत करने को गये

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