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व्याख्यान ६० :
: ५५५ : भावार्थ:-जीवने प्रायः अनंतीवार चैत्यो तथा प्रतिमाये बनाई हैं परन्तु उनको असमंजस वृत्ति से (मिथ्यादृष्टि से) कराई हुई होने से शुद्ध दर्शन (समकित) का एक लेश भी प्राप्त नहीं हुआ (यह गाथा दर्शनरत्नाकर की है)।
अपितु अनादिअनन्त भागे गुणस्थानक में वर्तता कोई अभव्य जीव अनेकों बार गुर्वादिक सामग्री के पाने पर भी कदापि किसी भी भव में सास्वादन स्वभाव (दूसरा गुणस्थानक को) नहीं पा सकता । इसी विषय पर तीनों भुवन के शरणभृत श्रीतीर्थंकर महाराजने कहा है किकाले सुपत्तदाणं, सम्मविसुद्धं बोहिलाभं च । अंते समाहिमरणं, अभव्वजीवा न पावंति ॥१॥ इंदत्तं चक्कीत्तं, पंचुत्तरसुरविमाणवासं च । लोगंतियदेवत्तं, अभवजीवा न पावंति ॥२॥
- उत्तरनरपंचुत्तर, ___तायतीसा य पुवधर इंदा । ।
x उत्तम नर अर्थात् लोकोत्तर पुरुष को शलाका पुरुष कहता है, उनकी संख्या ७५ की किस प्रकार गिनी इसका पत्ता नहीं चलता । ६३ शलाका पुरुष उपरान्त ११ रुद्र गिने तो ७४ होते है और नो नारद गिने तो ८३ होते हैं। कालसित्तरी में इस प्रकार गिने गये हैं।