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व्याख्यान ६० वां
दीपक समकित मिथ्यादृष्टिरभव्यो वा, स्वयं धर्मकथादिभिः । परेषां बोधयत्येवं, दीपकं दर्शनं भवेत् ॥१॥
भावार्थ:--मिथ्यादृष्टि के अभव्य स्वयं धर्मकथादि कर दूसरों को बोधित करे वे मिथ्यादृष्टि दीपक समकित कहलाते हैं ।
यहां इस प्रकार जानना कि-अनादि सात भांगे प्रथम गुणस्थानक में वर्तता कोई मिथ्यादृष्टि जीव किसी भी पुण्य के योग से श्रावककुल में उत्पन्न हो । वहां कुलाचार के कारण गुरु आदि सामग्री को पाकर बड़ा होजाने की इच्छा से अथवा मत्सर, अहंकार या हठ आदि के कारण जिनबिंब, जिनचैत्य आदि श्रावक के योग्य उत्तम कार्य किये परन्तु वह देवादिक के सत्य स्वरूप को नहीं जानता तथा ग्रन्थीभेद भी नहीं किया, अतः सम्यग्भाव बिना ही वह सुकृत्य करता है । इस प्रकार प्रागी अनन्तीवार वैसे सुकृत्य करता है, परन्तु उससे विशेष लाभ नहीं होता। कहा है किपाएणणंत देउल-पडिमाओ, कराविआओ जीवेण। असमंजसवित्ताए, न हु सुद्धो दंसणलवो वि ॥१॥