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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : तो पैर के नीचे कोयलों के दवजाने से चमचम शब्द होने लगा। उस शब्द को सुन कर उस साधुओंने कोयलों को नहीं जानने से जीवों का मर्दन होता है ऐसा जान कर बारबार पश्चात्ताप कर अपने आत्मा की निन्दा करने लगे और उस पाप का प्रतिक्रमण करने लगे। फिर रूद्राचार्य स्वयं लघुनीत करने को उठे। उन्होंने भी चमचम शब्द सुना, अतः उन पर बारंबार जोर से पैर रख कर शब्द कराते बोले किअहो ! ये अरिहंत के जीव पुकार करता हैं । इस वाक्य को विजयसेनसरिने अपने शिष्यों को प्रत्यक्ष सुनवाया । फिर प्रातःकाल सूरिने रूद्राचार्य के शिष्यों से कहा कि-तुम्हारा यह गुरु अभव्य होने से सेवा करने योग्य नहीं है । क्योंकिसप्पो इक्कं मरणं, कुगुरु दिति अनंताई मरणाई । तो वर सप्पं गहियं, मा कुगुरुसेवणा भद्दा ॥१॥
भावार्थ:-सर्प (दंशा हो तो) एक ही वक्त मारता है परन्तु कुगुरु तो अनंत भव तक अनंत वक्त मारता है, अतः सर्प को ग्रहण करना श्रेष्ठ है परन्तु कुगुरु की सेवा करना श्रेष्ठ नहीं। असंजयं ज वंदेजा, मायरं पियरं गुरुं । सेवणाविय सिटाणं, रायाणं देवया पि वा ॥२॥
भावार्थ:--संयम रहित (असंयति-विरति रहित )