Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Vijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
Publisher: Vijaynitisuri Jain Library

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Page 579
________________ का : ५५० : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं, भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजश्रीः । इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे, हा हन्त हन्त नलिनी गज उजहार ॥१॥ भावार्थ:-कोई भ्रमर एक कमल में प्रवेश कर उसका रस चूमता था कि-इतने में रात हो गई और कमल बन्द हो गया तो अन्दर बन्द हुआ भ्रमर विचार करने लगा कि-रात्रि का अन्त होगा और सुन्दर प्रातःकाल आ गया जिस में सूर्य उदय होगा और इस कमल की शोभा खिलेगी (कमल खिलेगा) जिससे मैं मुक्त हो जाउंगा । इस प्रकार कोश में रहा भ्रमर विचार कर रहा था कि-इतने में ऐसी खेदकारक बात हुई कि-कोई हाथी वहां पानी पीने आया। वह उस कमल को तोड़ कर खा गया जिससे भ्रमर की धारणा मन की मन ही रह गई । उसी प्रकार यहां भी कौतुक देखने के मिष देवभुवन जैसे भुवन में प्रवेश करनेवाले राजा आदि की कौतुक देखने की इच्छा मन की मन ही में रह गई और उलटे कष्ट में आ गिरे। . उस समय कोकाश के संकेतानुसार काकजंघ राजा का पुत्र सैन्य सहित वहां आ पहुंचा । उसने कनकप्रभ राजा के सुभटों को परास्त कर उसके मातापिता को पिंजरे से

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