Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Vijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
Publisher: Vijaynitisuri Jain Library

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Page 577
________________ : ५४८ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : विषय में पक्षपात रख कर उन में स्वपर का विभाग नहीं करते । कहा है कि-- सर्वेषां बहुमानाहः, कलावान् स्वपरोऽपि वा । विशिष्य च महेशस्य, महीयो महिमाप्तिकृत् ॥१॥ ____ भावार्थ:--कलावान अपना हो या दूसरे का, फिर भी उसका सब को बहुमान करना चाहिये । देखिये चन्द्र के कलावान होने से शंकरने उसका विचार कर उसे अपने भालस्थल में स्थान दिया है । इस प्रकार पुरवासियों का कहना सुन कर राजाने कोकाश का सत्कार कर उसको कहा कि-हे कलाकुशल ! मेरे लिये कमल के आकार का गरुड़ के सदृश आकाशगामी घर बना, उसके सो पंखड़िये लगा और प्रत्येक पंखड़ी पर मेरे पुत्रों के रहने योग्य मन्दिर बना। उसके मध्य में कर्णिका के स्थान पर मेरे रहने योग्य भुवन बना । इस प्रकार का दैवविमान जैसा भुवन बना। यह सुन कर जीवन की अभिलाषावाला कोकाशने अपने अभिप्राय को गुप्त रख कर "आप की आज्ञा का पालन किया जायगा" ऐसा कह कर अपने मनोरथ को सिद्ध करने के लिये और बाहर से राजा का चित्त प्रसन्न करने के लिये उसके कहेनुसार कमलगृह बनाया, फिर उसने काकजंघ राजा को गुप्त - उत्तरार्ध अशुद्ध जान पडता है ।

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