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व्याख्यान ५९ :
: ५४३ : छड्ढे दिगविरतिव्रत में एक दिवस में प्रत्येक दिशा में एक सो योजन से अधिक दूर नहीं जाने का नियम लिया।
एक बार राजा यशोदेवी नामक उसकी पट्टरानी सहित काष्ठ गरुड़ पर बैठ कर फिरने जाने को तैयार हुआ था कियह हकिकत जान कर विजया नामक दूसरी रानीने सपत्नी (शोक्य) पर के द्वेष के कारण अपने खानगी पुरुषद्वारा उस गरुड़ की एक मूल किली निकलवा दी और उसके स्थान पर ठीक वैसी ही नई किली लगवा दी । इसका किसी को पत्ता न चला । कहा है किउन्मत्तप्रेमसंरंभादारभन्ते यदंगनाः । तत्र प्रत्यूहमाधातुं, ब्रह्मापि खलु कातरः ॥१॥
भावार्थ:-उन्मत्त प्रेम के वेग से स्त्रिये जो कार्य आरंभ करती हैं उस कार्य में विघ्न डालने में ब्रह्मा भी असमर्थ है ।
फिर राजा रानी सहित गरुड़ पर बैठा और कोकाशने गरुड़ को आकाश में उडाया। बहुत दूर जाने के बाद राजा को दिग्विरति व्रत का स्मरण हो आने से कोकाश को पूछा कि-हे मित्र ! हम कितने दूर आये हैं ? कोकाशने उत्तर दिया कि-हे स्वामी ! हम दोसो योजन दूर आये हैं। यह सुन राजाने खेदित होकर कहा कि-हे मित्र ! गरुड़ को