________________
व्याख्यान ५७ :
भुक्ताः श्रियः सकलकामदुधास्ततः किं ? । संप्रीणिताः प्रणयिनः स्वधनैस्ततः किम् ? । दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं ? कल्पं स्थितं तनुभृतां तनुभिस्ततः किम् ? ॥२॥
भावार्थ:-सकल मनोरथ के पूर्ण करनेवाली लक्ष्मी का कभी उपयोग किया तो क्या ? अपने धनद्वारा प्रेमी जनों को प्रसन्न किया तो क्या ? शत्रु के मस्तक पर पैर रक्खा तो क्या ? और इसी ही देहद्वारा कदाच प्रलयकाल पर्यन्त रहा (जीवित रहा) तो क्या ? क्योंकि परिणाम में तो इन सब का निष्फल और अविनाशी होना निश्चय ही है। इत्थं न किंचिदपि साधनसाध्यजातं, स्वप्नेन्द्रजालसदृशं परमार्थशून्यम् । अत्यन्तनिर्वृतिकरं यदपेतबाधं, तद्ब्रह्म वाञ्छत जना यदि चेतनास्ति ॥३॥
भावार्थ:-इस प्रकार परमार्थ रहित और इन्द्रजाल के सदृश सुख भोग कर यदि किसी भी साधन से साध्य की सिद्धि नहीं हुई तो यह सब व्यर्थ है, अतः हे भव्य जीवों ! यदि तुम्हारे में चेतना (बुद्धि) हो तो अत्यन्त निवृत्ति करनार और बाधा रहित ब्रह्म (मोक्ष) की वांछा करो।