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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
इस लिये संसार के सर्व सुख तच्चतः दुःखरूप ही है । महाभाष्य में भी इस विषय में कहा है कि
विसयसुहं दुकं चिय, दुरकपडियारओ तिगच्छं । तं सुहमुवयाराओ,
न य उवयारो विणा तत्थ ॥ १ ॥
भावार्थ : - मात्र दुःख के प्रतिकाररूप ही होने से विषय सुख दुःखरूप ही हैं । कोढ़, अन्तर्गल, आदि व्याधियें जैसे क्वाथपान, छेदन, डंभन आदि चिकित्सा करने से मिटती है अर्थात दुःखरूप प्रतिकार से मिटती है उसी प्रकार विषय सुख भी मात्र क्षुधा, तृषा, कामविकारादि दुःखों के प्रतिकाररूप होने से ये दुःख ही है तिसपर भी लोक में वे सुख के नाम से ही पुकारे जाते हैं, परन्तु ऐसा उपचार पारमार्थिक सुख बिना किसी भी स्थान पर घटित नहीं होता । जैसे किसी पुरुष को सिंह आदि नाम से पुकारा जाय तो लोकरूढीद्वारा वह उस नाम से जरुर जाना जासकता हैं परन्तु इससे उस सिंह का शब्द सुनने पर लोगों को भयादिक उत्पन्न नहीं होता इसी प्रकार विषय सुख भी वास्तविक सुख पैदा करनेवाले नहीं हैं, मात्र उनका नाम ही सुख है, सुख शब्द से वे जाने जाते हैं । पारमार्थिक सुख तो एक मोक्ष ही में
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