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व्याख्यान ५७ :
तो वह चक्षु से दिखाई नहीं देसकता परन्तु स्पर्श से स्वर्ण का होना जाना जासकता है, उसका भी यदि अत्यन्त बारीक चूर्ण कर सूक्ष्म रज के साथ मिला दिया जाय तो वह किमत रहित व्यर्थ-सा हो जाता है परन्तु वास्तव में तो उस में स्वर्ण मौजुद ही है, नाश नहीं होता क्योंकि फिर यदि उसका विपरीत प्रयोग किया जाय तो वापस वह जैसे को तैसा स्वर्ण बन सकता है आदि अनेक प्रकार की विचित्रता पुद्गलों में रही हुई है जिसको अपनी बुद्धि से जाना जासकता है। दीपक के पुद्गल भी प्रथम चक्षु से ग्राह्य थे, उसके बुझाने पर वे शीघ्र ही अंधकारमय हो गये । फिर भी घ्राणेन्द्रिय (नासिका)द्वारा ग्रहण हो सकते हैं। जैसे दूसरे परिणाम को पाया हुआ दीपक निर्वाण शब्द से पुकारा जाता है उसी प्रकार जीव भी कर्म रहित होकर अकेला, मूर्ति रहित, सम्पूर्ण जीव स्वरूप की प्राप्तिरूप अव्याबाध परिणाम को पाने से निर्वाण-निवृत्ति पा गया ऐसा कहा जाता है । ___ यहां पर यदि किसी को शंका हो कि-शब्दादिक विषयों का उपभोग न होने तथा शरीर और इन्द्रियों के न होने से मोक्ष में भी सुख का अभाव ही होना चाहिये । उसका यह उत्तर है कि-मुक्ति पाये हुए जीवों को वचन से भी अगोचर अति उत्कृष्ट अकृत्रिम स्वाभाविक सुख है (यह अनुमान प्रमाण में प्रतिज्ञा-साधने लायक वाक्य है) प्रकर्ष ज्ञान के