________________
व्याख्यान ५७ :
: ५१३:
जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपैति, नैवावनीं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित्, क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥२॥
भावार्थ:-जब दीपक निर्वृत्ति पाता है तब वह पृथ्वी पर किसी जगह नहीं जाता, आकाश में नहीं जाता, किसी दिशा में नहीं जाता, उसी प्रकार किसी विदेश में भी नहीं जाता परन्तु स्नेह (तैल) का नाश होने से केवल शांति को ही पाता है इसी प्रकार जब निवृत्ति पाता है तब वह पृथ्वी पर कहीं नहीं जाता, किसी दिशा में नहीं जाता, न विदेश में ही जाता है परन्तु क्लेश का (कर्म अथवा संसार का) क्षय होने से केवल शान्ति को ही पाता है। __ ऐसा मानना असत्य है क्योंकि जैनशासन में कहा है किकेवलसच्चिद्दर्शनरूपाः, सर्वार्तिदुःखपरिमुक्ताः । मोदन्ते मुक्तिर्गता जीवाः, क्षीणान्तरारिगणाः॥॥
भावार्थ:--जिन के अभ्यन्तर शत्रुसमूह क्षीण हो गये हैं ऐसे जीव मुक्ति को प्राप्त करने पर सर्व आर्ति और दुःख से मुक्त होकर केवल सत्-चित्(ज्ञान)-दर्शनरूप में ही हर्ष पाते हैं।