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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
निर्मल केवलज्ञानद्वारा उत्तम ऐसे प्रथम गणधर गौतमस्वामी जिन्होने जिनेश्वर से जीव का निश्चय कर प्रतिबोध प्राप्त किया, उन गणनाथ की मैं मनोहर स्तुति करता हूँ। इत्युपदेशप्रासादे चतुर्थस्तंभे पञ्चपञ्चाशत्तमं
व्याख्यानम् ॥ ५५ ॥
व्याख्यान ५६ वां समकित का तीसरा तथा चोथा स्थानक शुभाशुभानि कर्माणि, जीवः करोति हेतुभिः । तेनात्मा कर्तृको ज्ञेयः, कारणैः कुंभकृद्यथा ॥१॥
भावार्थ:-जैसे कुम्हार मिट्टी, चक्र और डोर आदि कारणों से घड़े का कर्ता है उसी प्रकार जीव भी कषायादिक बंध के हेतुओंद्वारा शुभ और अशुभ कर्म करता है। यह जीव कर्ता है इसे समकित का तीसरा स्थानक समझना चाहिये ।
अथ चोथा भोक्ता स्थानक बतलाया जाता हैस्वयं कृतानि कर्माणि, स्वयमेवानुभूयते । कर्मणामकृतानां च, नास्ति भोगः कदापि हि ॥२॥
भावार्थ:-स्वयं (आत्मद्वारा-जीवद्वारा) किये हुए कर्मों (कर्मों का फल) को तो खुद ही भोगता है क्योंकि