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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
बर करते हुए अग्निभूति अपने पांचसो शिष्यों को साथ ले कर जिनेश्वर के पास गया । उस समय जिनेश्वरने उसको " हे गौतम! अग्निभूति आओ" इस प्रकार उसके नाम गोत्र कथनपूर्वक बुलाया । यह सुन कर अग्निभूतिने विचार किया कि - " मैं जगत में प्रसिद्ध हूँ फिर मुझे कोन नहीं जानता ! परन्तु यह यदि मेरे मन का संशय जान कर उसका निवारण कर दे तो मुझे अवश्य विस्मय हो । " वह इस प्रकार विचार कर ही रहा था कि भगवनने कहा " हे अग्निभूति गौतम ! तुझे यह संशय है कि कर्म है या नहीं ?, परन्तु तेरा यह संशय निर्मूल हैं। तू वेद के पदों का अर्थ बराबर नहीं जानता इससे तुझे यह संशय हो गया है । वे वेद के पद इस प्रकार हैं " पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच भाव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति । यदेजति यन्नेजति यदूरे यदन्ति के यदन्तरस्थ सर्वस्यास्य बाह्यत इत्यादि " इसका अर्थ तू ऐसा करता है कि - " पुरुष अर्थात् आत्मा । इसका अर्थ निश्चय है और यह कर्म की व्यावृत्ति (निषेध) के लिये है । यह सर्व प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला चेतन तथा अचेतन, जो हो गया है और होनेवाला है (मुक्ति तथा संसार ) उनका अर्थ समुच्चय है अमृतत्वस्य अर्थात् मृत्यु धर्म रहित ऐसे मोक्ष का इशानप्रभु है । जो कोई आहारादिक से वृद्धि को प्राप्त करते हैं, पशु आदि जो कोई चलते हैं, पर्वत आदि जो नहीं चलते,
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