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व्याख्यान ५६ :
यत्तत्पुराकृतं कर्म, न स्मरन्तीह मानवाः । तदिदं पांडवज्येष्ट !, दैवमित्यभिधीयते ॥२॥
भावार्थ:-हे युधिष्ठिर ! जिन पूर्व किये हुए कर्मों को मनुष्य इस भव में नहीं संभार सकते (मनुष्यों के स्मरण में नहीं आते), वे कर्म "देव" कहलाते हैं। . अपितु हे अग्निभूति । ऐसा समझ कि वे कर्म मृर्तिमान हैं क्योंकि कर्म को अमूर्त मानने से आकाशादिक की तरह उनसे आत्मा को अनुग्रह, उपघात का, सुखदुःख का संभव होता है। अपितु यह भी समझ कि-इन कर्मों के साथ आत्मा का अनादिकाल से सम्बन्ध है क्योंकि यदि इन का सम्बन्ध सादि माना जाय तो युक्त जीवों को भी कर्मों का सम्बन्ध होना चाहिये। सादि सम्बन्ध मानने से संसारी जीव पहेले कर्म रहित था, और फिर अमुक काल में कर्म सहित हुआ, तो मुक्त जीव भी कर्म सहित हुए फिर उनको भी अमुक समय में कर्म का सम्बन्ध होना चाहिये और ऐसा होने से मुक्त जीव अमुक्त होगें, अतः ऐसा मानना इष्ट नहीं है इसलिये प्रवाहद्वारा जीव कर्म का सम्बन्ध अनादि है ऐसा समझ । यहां पर यदि किसी को शंका हो कि-"जब जीव कर्म का सम्बन्ध अनादि है तो फिर उनका वियोग क्यों कर हो सकता है ? क्योंकि जो अनादि होता है वह अनन्त