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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : भी होता है। जैसे काल अनादि है वैसे ही अनन्त भी है।" इस शंका का यह उत्तर है कि-ऐसे स्वर्ण और पाषाण का सम्बन्ध अनादि है तो भी उस प्रकार की सामग्री के योग से अग्नि में रख कर धमने से स्वर्ण और पाषाण अलग अलग हो जाते हैं, इसी प्रकार जीव भी ध्यानरूपी अग्नि के योग से अनादि सम्बन्धवाले कम से अलग हो जाता है ऐसा सिद्ध होता है।
अपितु हे आयुष्मान् ! यदि कर्म न हो तो धर्म, अधर्म, दान, अदान, शील, अशील, तप, अतप, सुख, दुःख, स्वर्ग, नरक आदि सर्व व्यर्थ हो जायें, अतः तू तेरा पक्ष छोड़ कर कर्म का होना स्वीकार कर ।
यहां पर यदि किसी को शंका हो कि-जगत आदि सर्व वस्तुओं का कर्ता एक ईश्वर ही है तो फिर वंध्या के पुत्र के. सदृश अदृष्ट कर्म की कल्पना क्यों करे ? ऐसी शंका तद्दन असत्य है क्योंकि यदि जगत का कर्ता ईश्वर है तो वह मूर्तिमान है या अमूर्तिमान ? यदि मूर्तिमान है तो वह कुंभकार आदि की तरह दिखाई क्यों नहीं देती और अमूर्त होते हुये ही यदि संसार का सृजन करता है तो शरीरादिक के अभाव में उस में जगत के सृजन करने का सामर्थ्य कैसे हो सकता है ? अतः शुभाशुभ कर्म का कर्ता जीव ही है और भोक्ता भी जीव ही है। इस बारे में आगम में भी कहा