________________
#
श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
रंकपनरूप विचित्रपन प्रत्यक्ष है वह निर्हेतुक नहीं है, उसका कारण होना ही चाहिये । बिना कारण यदि ऐसी विचित्रता हो तो वह सदैव एकसी ही होनी चाहिये या नहीं होनी चाहिये, परन्तु ऐसा नहीं है । यह तो बदलती ही रहती हैं, अतः यह अवश्य मानना पड़ेगा कि यह सर्व विचित्रता कर्म से ही होती है । कहा है कि
: ५०४ :
नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा, हेतोरन्यानपेक्षणात् ।
अन्य हेतु की अपेक्षा न हो तो नित्य सत्य अथवा असत्यपन होना चाहिये किन्तु ऐसा नहीं होता है, अतः इस विचित्रता का हेतु ही कर्म है ।
पौराणिक भी कर्म का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कियथा यथापूर्वकृतस्य कर्मणः, फलं निधानस्य इवावतिष्ठते । तथा तथा तत्प्रतिपादनोद्यता, प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्तते ॥ १ ॥
भावार्थ:-- जैसे जैसे निधान के समान पूर्वार्जित कर्मों
का फल प्राप्त होता जाता है तैसे उन कर्मों का प्रतिपादन करने को तैयार हुई मति मानो हाथ में दीपक लेकर आती है ऐसी प्रवृत्त होता है। अपितु