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व्याख्यान ५६
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मेरु आदि जो दूर हैं और जो समीय है वे सब आत्मा ही है । जो इन चेतन और अचेतन सर्व के मध्य में तथा सर्व के बाहर है वह सर्व पुरुष (आत्मा) ही है।" इस प्रकार अर्थ कर जो तू कर्म को अभाव करता है वह अयुक्त है क्योंकि कई वेद वाक्य विधिवाद करते हैं, कई अर्थवाद करते हैं तथा कई अनुवाद करनेवाले होते हैं। उन में “अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः-स्वर्ग की इच्छावाले को अग्निहोत्र करना चाहिये आदि वाक्य विधिवाद करनेवाले हैं । अर्थवाद के वाक्य स्तुत्यर्थक और निंदार्थक ऐसे दो प्रकार के होते हैं। उन में "पुरुष एव" आदि वाक्य आत्मा के स्तुत्यर्थक हैं और “जीवहिंसा के कारण होने से यज्ञ कर्म न करना" ये निंदार्थक वाक्य है तथा "द्वादश मासा संवत्सरोऽग्निरुष्णोऽग्निर्हिमस्य भैषजं"-बारह महिने का वर्ष है, अग्नि उष्ण है, अग्नि हिम की औषधि है, आदि वाक्य अनुवादवाले हैं, क्योंकि ये वाक्य लोकप्रसिद्ध अर्थ को ही बतलानेवाले हैं। अब "पुरुष एव" आदि स्तुत्यर्थक वाक्य जाति आदि के मद के त्याग कराने के लिये हैं और अद्वैतवाद के प्रतिपादक है अर्थात् जहां देखो वहां आत्मा ही है, अतः इसका यह तात्पर्य है कि-मद का त्याग करना चाहिये । ___ अपितु हे गौतम ! आत्मपनद्वारा सरिखे ऐसे सर्व आत्मा का जो यह देव, मनुष्य, तियच, नारकी, राजा और