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व्याख्यान ५७ वां समकित का पांचवां तथा छट्ठा स्थानक अभावे बन्धहेतूनां, घातिकर्मक्षयोद्भवे । केवले सति मोक्षःस्याच्छेषानां कर्मणां क्षये ॥१॥ सुरासुरनरेन्द्राणां, यत्सुखं भुवनत्रये । तत्स्यादनन्तभागोऽपि, न मोक्षसुखसंपदाम् ॥२॥ अनन्तसुखसंपूर्ण, निर्वाणपदमक्षयम् । नाधनन्तं प्रवाहेण, भाषितं विश्ववेत्तृभिः ॥३॥
भावार्थः-कर्म के बंध हेतुओं का अभाव होने और घातिकर्म के क्षय होने से केवलज्ञान होने पश्चात् शेष अघाति कर्म के क्षय होने पर मोक्षपद प्राप्त होता है। तीनों जगत के सुर, असुर और नरेन्द्रों को जो सुख है, उन सब सुखों को एकत्रित किया जाय तो वे मोक्षसुख की सम्पदा का अनन्तवां भाग भी नहीं हैं । विश्व के सर्व भाव को जाननेपाले जिनेश्वरोंने निर्वाण (मोक्ष) पद को अनन्त सुख से अनन्त कहा है । यह “निर्वाण है" इस नाम का पांचवा' स्थानक समझना चाहिये ।
अब छडे मोक्षोपाय (मोक्ष का उपाय) नामक छडे स्थानक का वर्णन किया जाता है ।