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व्याख्यान ५६ :
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है कि-"जीवे णं भंते किं अत्तकडे दुख्खे परकड़े दुख्खे उभयकडे दुख्खे? गोयमा! अत्तकड़े नो परकड़े तदुभयकड़े ।" हे भगवान् ! क्या जीव अपने किये हुए दुःखों को भोगता है या दूसरों के किये हुए या खुद के ' तथा दूसरों दोनों के किये हुए दुःखों का अनुभव करता है ? हे गौतम ! जीव अपने खुद के किये हुए दुःखों को ही भोगता है परन्तु दुसरों के किये हुए या दोनों के किये हुए दुःखों को नहीं मोगता है।" अतः जीव अपने किये हुए कर्मों को स्वयं ही भोगता है ।
अपितु हे अग्निभूति ! तेरे मन का संशय जैसे मैंने जान लिया है वैसे ही मैं ज्ञानावरणादिक आठे कर्मों को प्रत्यक्ष देखता हूँ, अतः तू कर्म को स्वीकार कर । जीव, कर्म आदि कोई भी वस्तु मुझ से अदृश नहीं है इसी प्रकार वेद में भी "पुण्यं पुण्येन कर्मणा, पापं पापेन कर्मणा" शुभ कर्म से पुण्य और अशुभ कर्म से पाप होता है इस प्रकार कहा गया है, अतः आगम (वेद) से भी कर्म की सिद्धि होती है इसलिये तू इसको स्वीकार कर ।"
इस प्रकार भगवान के उपदेश से प्रतिबोध पाया हुआ अग्निभूति अपना गर्व छोड़ कर विचार करने लगा कि"अहो ! मैं बड़भागी हूँ कि-जिससे मुझे विश्व के पूज्य, गाढ़ अज्ञान के हरण करने में सूर्य समान तथा अनन्त गुणों से