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व्याख्यान ५५ :
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जाते तो मोक्षपथ संकड़ा हो जाता ? हे तीनों जगत के सूर्य सदृश प्रभु ! अब मेरे प्रश्नों का उत्तर कौन देगा? आदि विचार कर वह बारंबार “ महावीर महावीर" इस शब्द का उच्चस्वर से जाप करने लगा। ऐसा करने से उसके कंठ एवं तालु सूख गये, अतः बाद में "वीर" और अन्त में अकेला “वी" शब्द का ही उच्चार होने से एक "वी" शब्द का ही उच्चार होने लगा। उस समय स्वयं द्वादशांगी के जाननेवाले होने से एक "वी" शब्द ही से सर्व शास्त्रों के अर्थ को प्रकट करने की शक्ति को धारण करनेवाले श्रीगौतम गणधर का "वी" शब्द से शुरु होनेवाले अनेकों उत्तम उत्तम शब्दों का स्मरण हो आया । वे इस प्रकार हैंहे वीतराग ! हे विबुद्ध ! हे विषयत्यागी! हे विज्ञानी ! हे विकारजीत ! हे विद्वेषी (द्वेष रहित) ! हे विशिष्ट श्रेष्ठी ! हे विश्वपति ! हे विमोही (मोह रहित) ! आदि शब्दों के याद आने पर उन में से प्रथम “वीतराग" शब्द के अर्थ का विचार करते हुए उनके सर्व मोह-राग का अन्त हो गया और तत्काल ही उनको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। देवताओंने केवली की महिमा की। स्वर्णकमल आदि की रचना की । फिर उन पर बैठ कर अनेक भव्य जीवों को प्रतिबोध कर बारह वर्ष तक केवली अवस्था में विचरण कर अन्त में साधनंत सुख (मोक्ष) को प्राप्त किया । . .