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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : अतः इनकी उपमा दी जा सकती हैं (इस विषय का श्रीहरिभद्रमरिकृत षड्दर्शनसमुच्चय की बृहद्वत्ति में विस्तार से निरूपण किया गया है जहां से पढ़िये) । अपितु हे गौतम! जैसा आत्मा तेरे देह में है वैसा ही दूसरे के देह में भी है क्योंकि हर्ष, शोक, संताप, सुख, दुःख आदि विज्ञान का उपयोग सर्व देहो में जान पड़ता है। अपितु आत्मा कुंथु सदृश होकर बड़े हाथी के सदृश भी हो जाता है । इन्द्र होकर तिर्यंच भी हो जाता है, अतः जिस की शक्ति का विचार भी नहीं किया जाय ऐसा अचिंत्य, शक्तिमान, विभू (समर्थ), कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और कर्म से भिन्नाभिन्न रूपवाला है।
अपितु विज्ञानघन आदि वेदवाक्यों के पदों का जो तू अर्थ करता है वह मी अयोग्य है। तेरा कहना है कि"विज्ञानघन एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय (उत्पद्य) ततस्तान्येव (महाभूतान्येव) अनुविनश्यति तदा विज्ञानघन आत्मा नश्यति । अत एव न प्रेत्यसंज्ञास्ति, प्रागेव सर्वनाशं नष्टत्वात् । " अत्यन्त विज्ञानयुक्त यह आत्मा इन पंच महाभूतों से उत्पन्न होकर फिर इन्हीं महाभतों में नाश हो जाता है अर्थात् गाढ़ विज्ञानरूप आत्मा का नाश हो जाता है, अतः परभव में जाता है ऐसी उसकी संज्ञा नहीं रहती क्योंकि पूर्व भव में ही उसका सर्वथा नाश हुआ है ।" इस प्रकार जो तू अर्थ करता है वह अयुक्त