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व्याख्यान ५१ :
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इस प्रकार मुनि की वाणी सुन कर प्रतिबोध पाये हुए उस ब्रामणने उसी समय उन मुनि से श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये । उन व्रतों के शुद्ध पालन करने से तथा शुद्ध श्रावक होने से बड़े बड़े लोग उसकी व्याधि के लिये अनेक प्रकार की चिकित्सा करने को कहने लगे फिर भी वह औषध न कर व्याधि की पीड़ा को सहन करने लगा। वह अपनी आत्मा को कहा करता था किपुनरपि सहनीयो, दुःखपाकस्त्वयायं । न खलु भवति नाशः, कर्मणां संचितानाम् ॥ इति सह गणयित्वा, यद्यदायाति सम्यक् । सदसदिति विवेको-ऽन्यत्र भूयः कुतस्ते ॥१॥
भावार्थ:-हे जीव ! तेरे को यह दुःखविपाक तो फिर भी सहन करने पड़ेगें क्योंकि संचित कर्मों का नाश नहीं होता ऐसा विचार कर दुःख या सुख जो भी प्राप्त हो जाय उसे सम्यक् प्रकार से सहन ही कर लेना चाहिये क्योंकि-इस प्रकार के सत् असत् का विवेक तुझें दूसरे जन्म में फिर किस प्रकार से प्राप्त हो सकेगा ?
इस प्रकार के दृढ़ चित्तवाले उस ब्राह्मण की एक बार इन्द्रने प्रशंसा की कि-"अहो! यह रोगी द्विज महासत्ववंत है क्योंकि उसके गुरुजनोंने अनेक प्रकार की चिकित्सा करना चाहा तो भी उसकी उपेक्षा कर वह रोग की व्यथा