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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
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को सहन करता है ।" यह सुन कर इन्द्र के उन वचनों पर श्रद्धा नहीं होने से कोई दो देव वैद्य का स्वरूप धारण कर उसके पास जाकर बोले कि - हे रोगी ब्राह्मण हम तुम को रोग से मुक्त कर देगें परन्तु तुझे रात्री में मद्य, मांस, मक्खन आदि का भोजन करना पड़ेगा। इस प्रकार वैद्यों का वचन सुन कर उसने विचार किया कि - ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने से तथा विशेषतया जैनधर्मावलम्बी होने से मुझे ऐसे निन्दित कर्म का त्याग करना ही श्रेष्ठ है, क्योंकि ऐसा कर्म लौकिक तथा लोकोत्तर दोनों स्थानों में निंद्य है । ऐसा विचार कर उस रोगी ब्राह्मणने वद्यों से कहा कि - हे वैद्यों ! जब मैं दूसरी औषधियों से भी चिकित्सा करने की इच्छा नहीं रखता तो फिर ऐसा सर्व धर्मो में त्याज्य पदार्थों का सेवन कर तो किसी प्रकार चिकित्सा करा ही सकता हूँ ? कहा भी है कि
मद्ये मांसे मधुनि च, नवनीते तक्रतो बहिः । उत्पद्यन्ते विलीयन्ते, सूक्ष्माश्च जन्तुराशयः ॥ १॥
भावार्थ:-- मध, मांस, मद्य और छास से निकले हुए मक्खन में क्षण क्षण में सूक्ष्म जन्तुओं का समूह उत्पन्न होता है और नाश होता है ।
सप्तग्रामे च यत्पापमग्निना भस्मसात्कृते । तदेवं जायते पापं, मधुबिन्दुप्रभक्षणात् ॥२॥