________________
: ४९२ :
श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : पुरुषः। अकर्ता निर्गुणो भोक्ता चिद्रपः इत्यादि" पुरुषआत्मा है वह आत्मा अकर्ता है (कर्ता नहीं), निर्गुण है (सत्वादिक गुणवाले नहीं) परन्तु भोक्ता और चैतन्यस्वरूप है आदि । __इस प्रकार शास्त्र भी परस्पर विरुद्ध बात कहनेवाले होने से आत्मा सिद्ध नहीं होता है।
इसी प्रकार इन तीनों भवनों में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं कि-जिस पदार्थ के सदृश जीव को बतला कर उपमान प्रमाण से भी आत्मा की सिद्धि की जा सके, अतः सर्व प्रमाणों से अतीत आत्मा (जीव) का नहीं होना ही सिद्ध होता है ।
हे इन्द्रभूति ! इस प्रकार जो तेरी धारणा है वह अयुक्त है । हे आयुष्मन् ! तूने आत्मा का इन्द्रियोंद्वारा अग्राह्य होने से नहीं होना कहा है परन्तु जैसे मैंने तेरे मन के संशय को जाना है उसी प्रकार में प्रत्यक्षरूप से सर्वत्र जीव को देखता हूँ। केवल मैं ही देखता हूँ ऐसा नहीं परन्तु तू भी "अहं" (हूँ) ऐसा शब्द बोल कर बतला रहा है कि-तेरे देह में भी आत्मा स्थित है । फिर भी जो तू उसका अभाव बतलाता है उससे "मेरी माता वंध्या है" इस वाक्य के सदृश तेरे खुद के वाक्यों में ही दोष आता है । अपितु स्मरण, कहीं भी जाने की इच्छा, किसी भी कार्य के करने की इच्छा, संशय आदि ज्ञानविशेष, ये जीव के ही गुण