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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
होता है और इसके पश्चात् किसी पर्वतादि में धुंआ दिखाई देने पर उस में अग्नि सिद्ध करने का अनुमान किया जाता है । उसी प्रकार यहां आत्मा की सिद्धि के लिये आत्मारूप लिंग के साथ उसके किसी भी लिंग (चिह्न) की प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्धि नहीं होती कि जिस चिह्न को देख कर व्याप्ति का ज्ञान हो सके और उसके पश्चात् अनुमान किया जा सके अपितु आगम से भी आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि सर्व मत के आगम परस्पर विरुद्ध हैं । एक शास्त्र मैं यह भी कहा है कि --
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एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे ! वृकपदं पश्य, यद्वदन्त्यबहुश्रुताः ॥ १ ॥ भावार्थ:- किसी नास्तिकने रेती में अपने हाथ से वरु के पैर सदृश रेखायें बना कर फिर सब लोगों को यह वरु के पैर के चिह्न है ऐसे कहते सुन कर अपनी पत्नी को कहा कि - हे प्रिया ! यह दुनियां जितनी इन्द्रियों से ग्राह्म है उतनी है, उस से अधिक नहीं । देखिये ये अबहुश्रुत मेरी बनाई हुई रेखाओं को वरु के पैर कहते हैं उसी प्रकार इन्हों ने शास्त्रों में ही सब कपोलकल्पित ही लिखा है अर्थात् अनेक प्रकार के त्यागनियमादिक बतानेवाले शास्त्र केवल मुग्ध जनों को भ्रम में डालने के लिये ही बनाये गये हैं । ब्राह्मणने एक और श्लोक कहा कि-
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