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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
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होता है वह इस प्रकार कि मैंने पूर्व भव में जो अरिहंत का बिंब बनाया हुआ वह ही यह बिंब है । इस प्रकार इस जन्म में यह बिंब देखने से उसका स्मरण हो जाता है और जाति स्मरण ज्ञान हो जाता है। जीव के पर्याय बदलते रहने से दूसरे भव में गमन करनेरूप वह अनित्य जान पड़ता है अर्थात् आत्मा नित्य है और उसके पर्याय अनित्य हैं ऐसा समझना चाहिये |
अपितु द्रव्य कदापि पर्याय रहित नहीं होता । इस विषय में पूर्व सूरिने कहा है किपर्यायविच्युतं द्रव्यं, पर्याया द्रव्यवर्जिताः । कदापि केन किंरूपा, दृष्टा मानेन केन वा ॥ १ ॥
भावार्थ:- पर्याय रहित द्रव्य को तथा द्रव्य रहित पर्याय को किसी भी समय किसी भी रूप में क्या किसीने देखा है ? अथवा किसी भी प्रमाण से सिद्ध किया है ? नहीं किया क्योंकि बिना पर्याय के द्रव्य और विना द्रव्य के पर्याय होता ही नहीं है ।
अपितु सद्भाव अर्थात् सत्ता के आश्रय से आत्मा शाश्वत है अर्थात् आद्यंत रहित केवल स्थिर स्वभावपन से ध्रुव है । इस प्रकार निश्चल किये हुए मनवाले को समकित का दूसरा स्थानक है ऐसा समझना । इस प्रसंग पर इन्द्रभूति का प्रबंध प्रसिद्ध है ।