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व्याख्यान ५५ :
पिब खाद च चारुलोचने! यदतीतं वरगात्रि तन्न ते । न हि भीरु गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥ २॥
भावार्थ:-हे सुन्दर नेत्रवाली ! तू इच्छानुसार खान पान कर । (अर्थात् उसका फिर से मिलना कठीन है) क्योंकि हे भीरु (डरनेवाले स्त्री)! गया हुआ वापस नहीं आता और यह शरीर तो मात्र पंचभूतों का समुदाय है अर्थात् शरीर का नाश होने पर सर्व का नाश हो जाता है। परलोक आदि सब असत्य है, अतः खाया, पीया और भोग किया वह है सच्चा है (इस प्रकार नास्तिक लोगों की मान्यता है)।
इसी प्रकार वेद में भी कहा है कि-"न हि वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा संतं प्रियाप्रिये न स्पृशतः।" शरीरवाले जीव को प्रिय था अप्रिय का नाश (अभाव) नहीं है । शरीरवाले जीव को प्रिय या अप्रिय स्पर्श नहीं करते (यहां प्रिय अर्थात् सुख अथवा पुण्य और अप्रिय अर्थात् दुःख अथवा पाप समझना चाहिये)। . अपितु कपिल के मतवालों का कहना है कि-"अस्ति