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व्याख्यान ५५ :
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इन्द्रभूति (गौतम) का प्रबन्ध
मगधदेश के गोबर नामक ग्राम में वसुभृति नामक ब्राह्मण रहता था जिसके पृथ्वी नामक पत्नी और इन्द्रभूति नामक पुत्र था । वह अपनी बुद्धि से व्याकरण, न्याय, काव्य, अलंकार, वेद, पुराण और उपनिषद् आदि सर्व शास्त्रो में विद्वान हो गया था परन्तु उसको वेद के अर्थ विचारते हुए जीव के अस्तित्व में संशय हो गया था लेकिन वह स्वयं सर्वज्ञ होने का ढोंग करता था, अतः किसी को पूछ कर इस शंका का निवारण नहीं कर सकता था |
एक बार वह इन्द्रभूति श्रीमहावीरस्वामी के समवसरण में आया तो प्रभुने उसे बुलाया और ज्ञानद्वारा उसके मन का संशय जान कर कहा कि हे इन्द्रभूति ! तू जीव का अभाव स्थापन (सिद्ध) करता है और उस में ऐसी युक्तिये लगाता है कि-घट, पट, लकुट आदि पदार्थों के सदृश जीव प्रत्यक्ष नहीं दिखाता, अतः खरगोश के सिंग के सदृश वह है ही नहीं । इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण से आत्मा का नहीं 'होना सिद्ध होता है अपितु अनुमान प्रमाण से भी आत्मा
सिद्ध नहीं हो सकता है क्योंकि अनुमान प्रमाण भी प्रत्यक्ष-पूर्वक ही प्रवृत्त होता है । प्रथम रसोई आदि में धुंआ देख - कर अग्नि की सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण से की थी इस से इसके पश्चात् जहां धुंआ हो वहां अग्नि होगी इस व्याप्ति का ज्ञान