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व्याख्यान ५५ :
: ४९३ : हैं और इससे वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है, अतः तू इसको स्वीकार कर ।
अपितु अनुमान प्रमाण से भी आत्मा की सिद्धि होती है:-देहादिक इन्द्रियों का जो अधिष्ठाता तथा भोक्ता है वह जीव ही है। गधे की सींग के सदृश जिसका भोक्ता न हो वह भोग्या भी नहीं। यह शरीरादिक भोग्य है तो इसका कोई भोक्ता भी होना ही चाहिये । अपितु हे गौतम । तुझे जीव के विषय में संशय होने से तेरे शरीर में जीव के होने का निर्णय होता है (क्योंकि तुझे जो संशय होता है वह किसको हुआ ?) जहां जहां संशय हो, वहां वहां वह (संशय. वाला) पदार्थ भी होना चाहिये । जिस प्रकार कोई पुरुष दूर से वृक्ष का हुँठ और मनुष्य को देखा हुआ होने से फिर से जब ऐसी कोई चीज देखता है तो वह उस में मनुष्य और वृक्ष के हुँढ दोनों के लक्षणों को देखता है कि-क्या यह वृक्ष का हुँढ है या पुरुष ? फिर अन्वय व्यतिरेक विचार कर पक्षी के उस पर बैठे हुए होने से यह वृक्ष का हुँढ है ऐसा सिद्ध करता है अथवा हस्तपादादिक अवयवों से और हिलनेचलने से पुरुष है ऐसा सिद्ध करता है । इसी प्रकार आत्मा और देह इन दोनों के अस्तित्व पर ही संशय उत्पन्न हो सकता है परन्तु उन दोनों में से किसी एक के भी अभाव में संशय नहीं हो सकता । इस प्रकार अनुमान प्रमाण से भी तू जीव का अस्तित्व स्वीकार कर ।