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व्याख्यान ५१ :
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- भावार्थ:-अनिद्वारा सात ग्रामों को जला कर भस्म करने में जितना पाप होता है उतना ही पाप मद्य के एक विन्दु मात्र भक्षण करने से होता हैं। यो ददाति मधु श्राद्धे, मोहितो धर्मलिप्सया । स याति नरकं घोरं, खादकैः सह लंपटैः ॥३॥
भावार्थ:-जो पुरुष धर्म की इच्छा से मोहित होकर श्राद्ध में मध खिलाता है वह उन लंपट खानेवालों के साथ ही साथ घोर नरक में जाता है।
इस प्रकार के वचन सुन कर वैद्योंने उसके स्वजनों से जब सब वृत्तान्त कहा तो उन्होंने एकत्रित होकर शास्त्रयुक्ति से उसकी चिकित्सा करने की प्रेरणा की। उन्होंने कहा किशरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराच्छवते धर्मः, पर्वतात् सलिलं यथा ॥१॥
भावार्थ:--धर्म के साधनभूत शरीर की प्रयत्न से रक्षा करना चाहिये क्योंकि जैसे पर्वत से पानी वित होता है उसी प्रकार शरीर से धर्म श्रवित होता है।
इस प्रकार पिता आदि स्वजनोंने उसको बहुत कुछ समझाया, फिर भी उसके धर्म में दृढ़ होने से वह बिना